इस्लामी राज्य का सपना, शैतानों की तिकड़ी और साजिशों का खेल… कश्मीर में आतंकवाद के पनपने की कहानी – History of Terrorism in Kashmir Butchers of Sopore and Birmingham Pakistan Terrorism ntc

तारीख 22 अप्रैल, दिन मंगलवार, आतंकवादियों ने कश्मीर के पहलगाम में एक भयावह हमले में 26 लोगों की हत्या कर दी, जो अब तक की उनकी रणनीति में एक बड़ा बदलाव था. अब तक वे सेना, पुलिस, स्थानीय अधिकारियों, कश्मीरी पंडितों और प्रवासी मजदूरों को निशाना बनाते थे, लेकिन पर्यटकों को बख्शते थे ताकि कश्मीर की प्रसिद्ध मेहमाननवाजी की छवि बनी रहे. इस हत्याकांड ने उस अनकहे समझौते को तोड़ दिया, जिसके गंभीर परिणाम हो सकते हैं.

आतंकवाद और उग्रवाद किस तरह पनपा, इसे समझने के लिए, हमें आजादी से लेकर 1990 के दशक की हिंसक घटनाओं तक के कश्मीर के उथल-पुथल से भरे इतिहास को देखना होगा, जब पूरे नैरेटिव पर आतंक हावी था.

पहले हिस्से में हम 1947 से लेकर 3 फरवरी 1984 तक के दौर को समझेंगे, जब बर्मिंघम में हुई एक बर्बर हत्या से खूनखराबे और बड़े पैमाने पर विरोध-प्रदर्शनों का दौर शुरू हुआ.

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सोपोर और बर्मिंघम के हत्यारे

सितंबर 1966, कश्मीरी सेबों के लिए मशहूर शहर सोपोर की शांति गोलियों की आवाज से भंग हो गई. पुलिस जब मौके पर पहुंची तो उन्होंने सीआईडी इंस्पेक्टर अमर चंद को खून से सनी सड़क पर मृत पाया, जिनके सिर और सीने में गोलियां लगी थीं.

जांच में पता चला कि पाकिस्तान स्थित नेशनल लिबरेशन फ्रंट (NLF) का सेक्रेटरी मकबूल भट्ट इस हत्या के पीछे थे, जो कश्मीर की आजादी के लिए लड़ रहा था. गिरफ्तार होने पर भट्ट ने माना कि उसने अमर चंद को ‘गद्दार’ मानकर मारा था, हालांकि बाद में वह अपने बयान से मुकर गया.

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अगस्त 1968 में, गवाहों के बयानों के आधार पर जज नीलकंठ गंजू ने भट्ट को फांसी की सजा सुनाई- और यहीं से कश्मीर में आतंक की एक भयानक गाथा शुरू हुई.

इस्लामी सपने

1966 तक, पाकिस्तान की कश्मीर पर कब्जा करने की इच्छा को पुराने इस्लामी आक्रमणों से प्रेरणा मिलती थी. 1947 में ‘ऑपरेशन गुलमर्ग’ के तहत पाकिस्तान ने कबायली लड़ाकों को सेना के अधिकारियों के नेतृत्व में कश्मीर पर कब्जे के लिए भेजा था. इस प्लान के मुख्य साजिशकर्ता ‘जनरल तारिक’ (ब्रिगेडियर अकबर खान का नकली नाम) ने 711 ईस्वी में स्पेन जीतने वाले उमय्यद जनरल तारिक इब्न ज़ियाद से प्रेरणा ली थी.

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1965 की गर्मियों में, पाकिस्तान ने रज़ाकारों और सैनिकों को गुरिल्लाओं के रूप में ट्रेनिंग देकर 9-10 समूहों में कश्मीर भेजा. ये मुजाहिदीन हरे रंग की शर्ट पहनते थे और उन्हें सरकार के मुख्य ठिकानों पर हमले कर, श्रीनगर पहुंचकर 8-9 अगस्त को होने वाले जनता के विरोध प्रदर्शन में शामिल होने का काम सौंपा गया था.

इसका नाम ‘ऑपरेशन जिब्राल्टर’ रखा गया था, जो 8वीं सदी में स्पेन पर उमय्यद आक्रमण की याद दिलाता है. इस प्लान को बनाने वाले मेजर जनरल अख्तर हुसैन मलिक (12 इंफेंट्री डिवीजन के जीओसी) इसे बिल्कुल सफल मानकर चल रहे थे. बैठकों और बातचीत के दौरान मलिक ने यह प्लान सेना अधिकारियों और अफसरों के साथ शेयर किया और आखिरकार विदेश मंत्री जुल्फिकार अली भुट्टो को भी मना लिया.

मलिक ने भुट्टो को यह विश्वास दिलाया कि कश्मीरी लोग मुजाहिदीन का साथ देंगे, कश्मीर रेडियो पर भारत से अलग होने की घोषणा करेंगे और अपने दोस्तों से मदद मांगेंगे- जिसका जवाब पाकिस्तान तुरंत देगा. भुट्टो ने इसे ‘Now or Never’ का मौका बताया और जनरल अयूब खान को इस प्लान को मंजूरी देने के लिए मना लिया.

लेकिन ऑपरेशन गुलमर्ग की तरह यह योजना भी बुरी तरह विफल रही. स्थानीय कश्मीरियों ने घुसपैठियों की सूचना दी, जिससे बड़े पैमाने पर तलाशी अभियान चला. अधिकतर मुजाहिदीन बिना राशन और आश्रय के जंगलों में मारे गए या पकड़े गए.

उथल-पुथल

इन ऑपरेशन्स की असफलता के बाद कश्मीर में एक अस्थायी शांति छा गई. इस बीच केवल एक बड़ा धार्मिक विवाद हुआ. 27 दिसंबर 1963 को श्रीनगर की हज़रतबल मस्जिद से पैगंबर मुहम्मद के पवित्र अवशेष (मोई-ए-मुक़द्दस) के गायब हो जाने से बड़े पैमाने पर प्रदर्शन हुए. पुलिस फायरिंग में दो लोग मारे गए. लेकिन जब अवशेष मिल गए, तो शांति वापस लौट आई.

1971 में अपनी सेना के ढाका में आत्मसमर्पण के बाद, भुट्टो जो अब पाकिस्तान के प्रधानमंत्री बन चुके थे, कश्मीर पर नए साजिशों से बचते रहे. इस बीच, कश्मीर में कुछ समय के लिए एक रहस्यमयी शांति बनी रही.

उस समय आम जनता के लिए कश्मीर स्वर्ग के समान था- शम्मी कपूर की बर्फ से ढकी रोमांटिक दुनिया और यश चोपड़ा के चिनार के पेड़.

इस दौर का सबसे यादगार पल अक्टूबर 1975 में आया जब प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी अपने परिवार के साथ श्रीनगर आईं. जब उनकी शिकारा नावें डल झील में तैर रही थीं, हजारों लोग इंदिरा गांधी जिंदाबाद के नारे लगाते हुए उनका स्वागत कर रहे थे.

लेकिन परदे के पीछे कुछ ताकतें कश्मीर के दुखद भविष्य की कहानी लिख रही थीं.

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शैतानों की तिकड़ी

8 दिसंबर 1968 को, मकबूल भट्ट श्रीनगर जेल से सुरंग बनाकर फरार हो गया और पाकिस्तान के कब्जे वाले कश्मीर पहुंच गया. वहां आईएसआई ने उसका हीरो जैसा स्वागत किया. उसने एनएलएफ के को-फाउंडर अमानुल्लाह खान के साथ मिलकर कश्मीर में आतंकवाद की पहली लहर शुरू की. कुछ रिपोर्ट्स यह दावा करती हैं कि पाकिस्तान को शक था कि भट्ट भारत का एजेंट है, इसलिए उन्होंने उसे महीनों तक जेल में रखा.

1976 में, आईएसआई के दबाव में, भट्ट ने एक बार फिर हमला किया, जिससे इंदिरा गांधी और शेख अब्दुल्ला के बीच 1975 में हुए समझौते की नाजुक शांति टूट गई.

13 अक्टूबर को भट्ट और एनएलएफ के पांच सदस्यों ने कुपवाड़ा में एक बैंक पर हमला किया. जब कैशियर गुलाम रसूल ने विरोध किया, तो उन्हें चाकू मार दिया गया. आतंकवादी केवल 20,000 रुपये लेकर भाग निकले.

सात दिन बाद, भट्ट को एक मुठभेड़ के बाद गिरफ्तार कर लिया गया और दिल्ली की तिहाड़ जेल भेज दिया गया. अदालत ने उसकी फांसी की सजा को बहाल कर दिया, लेकिन सरकार ने संभावित राजनीतिक प्रतिक्रिया से डरकर फांसी में देरी कर दी, जो आगे चलकर भारी नुकसान का कारण बना.

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साजिशों का खेल

भट्ट की लूट के ठीक सात साल बाद इंदिरा गांधी ने एक बड़ी गलती कर दी. उन्होंने श्रीनगर में एक दिवसीय क्रिकेट मैच कराने की इजाजत दी, जिससे अलगाववादियों को ध्यान खींचने का बड़ा मौका मिल गया.

13 अक्टूबर 1983 को भारत ने वेस्टइंडीज के खिलाफ श्रीनगर में पहला अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट मैच खेला. लंच ब्रेक के दौरान अलगाववादियों ने शेर-ए-कश्मीर स्टेडियम की पिच खोद डाली. जब मैच दोबारा शुरू हुआ तो उन्होंने भारतीय खिलाड़ियों के साथ बदसलूकी की और उन पर कचरा फेंका.

ब्रिटिश इतिहासकार एलेस्टेयर लैम्ब का कहना है कि यह कश्मीर के इतिहास में एक महत्वपूर्ण घटना थी. ‘कश्मीर घाटी में वह पहली बार एक इस्लामी विद्रोह की शुरुआत हो रही थी, जिसे केवल दिल्ली में हिंदू प्रभुत्व के खिलाफ एक संघर्ष कहा जा सकता है.’ (कश्मीर: अ डिस्प्यूटेड लेगसी, 1846-1990.)

तब तक कश्मीर में बहुत कुछ बदल चुका था. भुट्टो को सत्ता से हटाकर और फांसी देकर जनरल जिया उल हक 1978 में सत्ता पर काबिज हो चुके थे. उनके आने के साथ कश्मीर घाटी में इस्लामिक प्रभाव फैलने लगा. भुट्टो की विरासत और शिमला समझौते से आजाद होकर, उन्होंने घाटी में पैसा, हथियार और लड़ाके भेजने शुरू कर दिए. खाड़ी देशों से भी पैसे आने लगा, जिससे अलगाववादी संघर्ष को एक जिहादी मोड़ मिल गया.

1983 के चुनावों ने हिंदू और मुस्लिम समुदायों के बीच दरार को गहरा कर दिया. नेशनल कॉन्फ्रेंस ने घाटी में जीत दर्ज की, जबकि हिंदू बहुल जम्मू में कांग्रेस को समर्थन मिला. इस बीच जमात-ए-इस्लामी जैसे कट्टरपंथी संगठनों ने ‘इस्लामी कश्मीरी अवाम’ के अधिकारों की आवाज उठानी शुरू कर दी.

धार्मिक तनाव बढ़ने के साथ, कश्मीरी पंडितों को आगे चलकर इस संघर्ष का सबसे बड़ा निशाना बनना पड़ा. इस भयानक अध्याय से पहले, भट्ट को इस दुखद कहानी में अपनी आखिरी भूमिका अभी निभानी थी.

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बर्मिंघम का कसाई

3 फरवरी 1984 को शाम 6 बजे के आसपास, भारतीय वाणिज्य दूतावास के द्वितीय सचिव रविंद्र हरेश्वर म्हात्रे, बर्मिंघम के बार्टले ग्रीन्स इलाके में अपनी बेटी आशा के लिए जन्मदिन का केक लेकर बस से उतरे. जैसे ही वे घर की ओर बढ़े, तीन लोगों ने उन्हें घेर लिया, जबरन एक लाल कार में डाल कर मुस्लिम इलाके की ओर ले गए.

रात 3 बजे, कश्मीर लिबरेशन आर्मी (KLA) ने रॉयटर्स लंदन ऑफिस में एक मैसेज पहुंचाया, जिसमें मकबूल भट्ट की तत्काल रिहाई की मांग की गई थी.

5 फरवरी को, घबराए हुए किडनैपर्स ने म्हात्रे को बर्मिंघम से 20 मील दक्षिण-पूर्व में एक सुनसान गली में गोली मार दी. उनकी लाश बाद में एक बाइकसवार को सड़क पर पड़ी हुई मिली.

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स्कॉटलैंड यार्ड ने KLA (कश्मीर लिबरेशन आर्मी) को जम्मू कश्मीर लिबरेशन फ्रंट (JKLF) का हिस्सा बताया. NLF (नेशनल लिबरेशन फ्रंट), जिसे भट्ट और अमानुल्ला खान ने 1965 में शुरू किया था, से जुड़कर JKLF को 1977 में बर्मिंघम में बनाया गया. इसका प्रमुख चेहरा अमानुल्ला खान था, जिसे कश्मीरी प्रवासी समुदाय का समर्थन प्राप्त था. 80 के दशक में, ISI ने JKLF को हथियार और ट्रेनिंग देना शुरू कर दिया.

दो ब्रिटिश कश्मीरियों, मोहम्मद रियाज और अब्दुल्ला कय्यूम राजे को म्हात्रे की हत्या के लिए आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई. कई रिपोर्ट्स के अनुसार, अपहरण के वक्त अमानुल्लाह खान खुद बर्मिंघम में मौजूद था और अपहरण की साजिश में शामिल था. कुछ रिपोर्ट्स दावा करती हैं कि मास्टरमाइंड होने का पता चलने के डर से उसने म्हात्रे को मरवा दिया.

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आंख के बदले आंख

6 फरवरी को सुबह घने कोहरे और तनावपूर्ण माहौल में प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने कैबिनेट समिति की आपात बैठक बुलाई. उन्होंने स्पष्ट शब्दों में कहा, ‘भट्ट को तुरंत फांसी दी जाए.’ राष्ट्रपति जैल सिंह से मंजूरी लेने के लिए एक अधिकारी को तुरंत कोलकाता भेजा गया.

चार दिन बाद, जब भट्ट को फांसी की कोठरी में ले जाया गया तब उसे समझ आ गया कि उसका वक्त आ चुका है. उसे खाना दिया गया लेकिन उसने मना कर दिया. अगली सुबह उसे फांसी के तख्ते पर ले जाया गया, उसके हाथ बांध दिए गए और उसके चेहरे को एक काले नकाब से ढक दिया गया.

जब ट्रैपडोर खुला, तो उसका शरीर नीचे गहरे गड्ढे में लटक गया. रस्सी ने शरीर पर निशान छोड़ दिया. लेकिन भट्ट को एक गुमनाम जगह पर दफना दिया गया. कुछ घंटे बाद, ऑल इंडिया रेडियो ने उसकी फांसी की खबर दी, जिसके बाद विरोध प्रदर्शन हुए और कश्मीर में हत्या और बदले का सिलसिला शुरू हो गया.

इनपुट: राहुल गुप्ता

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