अमरनाथ यात्रा शुरू होने के ठीक पहले जम्मू कश्मीर के पहलगाम में आतंकियों ने 27 पर्यटकों की हत्या कर दी, जबकि कई लोग घायल हैं. अटैक के तार पाकिस्तान से जुड़े माने जा रहे हैं. हमले की जिम्मेदारी भी जिस आतंकी संगठन द रेजिस्टेंस फ्रंट (टीआरएफ) ने ली, वो पाकिस्तान के लश्कर-ए-तैयबा से जुड़ा रहा. स्थानीय मुखौटे के पीछे काम करते टीआरएफ ने इसके लिए अपने खास टैरर मॉड्यूल्स फाल्कन स्क्वाड की मदद ली थी, जो बेहद खूंखार और तेज-तर्रार माना जाता है.
पहलगाम टैरर अटैक में हिट स्क्वाड और फाल्कन स्क्वाड जैसे नाम सामने आ रहे हैं. ये नाम सुनने में नए हैं, लेकिन इनका आतंकवादी नेटवर्क और कार्यशैली पुराने, खतरनाक और बेहद संगठित आतंकी संगठनों से जुड़ी हुई है. ये कोई सीधा समूह नहीं, बल्कि टैक्निकल टैरर मॉड्यूल्स हैं, यानी छोटे-छोटे समूह जो किसी खास मिशन के लिए तैयार होते हैं और फिर खत्म हो जाते हैं, या चेहरा बदल लेते हैं. मतलब ये किसी ग्रुप का असल नाम नहीं, बल्कि रणनीति है.
हिट स्क्वाड का काम किसी खास टारगेट को खत्म करना है. वहीं फाल्कन खुद को रेवेंज ग्रुप बताता है. इस तरह से देखें तो हिट स्क्वाड एक तकनीक या ऑपरेशन का तरीका है, जबकि फाल्कन कोई स्पेसिफिक ग्रुप है, जो इस तरीके पर काम कर रहा है. इंडिया टुडे की एक रिपोर्ट के अनुसार, आने वाले समय में फाल्कन सुरक्षा के लिए बड़ा खतरा हो सकता है.
कैसे करते हैं काम
चूंकि द रेजिस्टेंस फ्रंट कश्मीर में सक्रिय है, लिहाजा इनकी रणनीतियों में टारगेट की रेकी करना, हथियार जुटाना, ट्रेनिंग लेना-लेना, और हमले के बाद घाटियों और जंगलों में छिपन जाना है. इंडिया टुडे की रिपोर्ट की मानें तो फाल्कन स्क्वाड को हाल ही में मॉडर्न हथियारों का बड़ा जखीरा मिला है, जिसे अब वो सुरक्षा बलों और आम लोगों पर हमलों में इस्तेमाल कर रहे हैं.
काम करने का तरीका
इस तरह के टेरर मॉड्यूल्स का तरीका बेहद शातिर है. इसमें सबसे ज्यादा परेशानी की बात ये है कि आतंकी अपने साथ लोकल युवाओं को रिक्रूट करते हैं. वे सोशल मीडिया के जरिए धार्मिक कट्टरता फैलाते और ब्रेनवॉश करते हैं ताकि युवा उनके साथ जुड़ जाएं.
इसके दो फायदे हैं- एक तो हमलों के लिए बड़े आतंकी स्थानीय लड़कों का इस्तेमाल कर सकते हैं, दूसरा- स्थानीय मिलिटेंट चुनने पर उन्हें लोकल सहानुभूति भी मिल जाती है और छिपने के लिए ठिकाना भी. फाल्कन मॉड्यूल में आतंकी हर समय हथियार उठाए नहीं घूमते और आम लोगों की तरह रहते हैं, वहीं घटना का अंजाम देने के बाद वे वेपन गायब कर देते हैं. आपस में कनेक्ट रहने के लिए वे इंटरनेट का इस्तेमाल पूरी चालाकी से कर पाते हैं.
काम करने का इनका तरीका, आतंक के पुराने ढंग से एकदम अलग
पहले हमलों का पैटर्न अलग हुआ करता था. थिंक टैंक ऑब्जर्वर रिसर्च फाउंडेशन की रिपोर्ट कहती हैं कि लाइन ऑफ कंट्रोल के उस पार से आतंकी आते और हमलों को अंजाम देते थे. वे आमतौर पर गुरिल्ला रणनीति से चुपचाप अटैक करते और वापस घाटी के घने जंगलों में गुम हो जाते.
अब इनकी जगह हाइब्रिड मिलिटेंट्स ने ले ली है. ये रैंडम युवा होते हैं, जिनकी कोई क्रिमिनल हिस्ट्री नहीं होती. वे ऑनलाइन माध्यम से रेजिस्टेंस ग्रुप से जुड़ते हैं. ट्रेनिंग होती है, टागरेट तय होता है. इसके साथ रेकी की जाती है और फिर तय समय पर वारदात को अंजाम देने के साथ आतंकी गायब हो जाते हैं. चूंकि इनका कोई रिकॉर्ड नहीं होता, लिहाजा उन्हें पकड़ना भी आसान नहीं. ये रैंडम लोग वापस अपने गांव-शहर जाकर आम जिंदगी में रम जाते हैं.
कश्मीर में क्या और भी आतंकी समूह एक्टिव
घाटी में कई टैररिस्ट गुट एक्टिव हो चुके हैं जिनके आगे-पीछे कोई नहीं दिखता. यानी वे हाल ही में बने और खुद को इंडिपेंडेंट बताते हैं. टीआरएफ, जम्मू कश्मीर गजवनी फोर्स, कश्मीर टाइगर्स और पीपल्स एंटी-फासिस्ट फ्रंट इन्हीं में से हैं. टीआरएफ का अस्तित्व धारा 370 हटाने के बाद आया. ये संगठन भी ऑनलाइन शुरू हुआ था. इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट के अनुसार, छह महीने केवल ऑनलाइन एक्टिविटी के बाद संगठन कई दूसरे बड़े आतंकी गुटों के साथ मिला हुआ दिखा. वैसे ये जैश-ए-मोहम्मद का प्रॉक्सी माना जा रहा है, यानी उसे कवर करने का काम करता है.
ऊपर से देखने पर ये ऐसे दिखाई देते हैं, जैसे नए बने गुट हैं, जिनका कोई पिछला इतिहास नहीं. इन सबका मकसद एक ही है- कश्मीर के स्थानीय लोगों के लिए गैर-कश्मीरियों के मन में डर और गुस्सा पैदा करना. साथ ही आतंक से कश्मीर को अस्थिर बनाए रखना. टीआरएफ के अलावा जम्मू कश्मीर गजनवी फोर्स और पीपल्स एंटी-फासिस्ट फ्रंट इनमें मुख्य हैं.
सबकी फंडिंग अलग-अलग ग्लोबल टैररिस्ट गुट करते रहे
जम्मू कश्मीर गजनवी फोर्स को जैश-ए-मुहम्मद से फंडिंग मिलती है. ये सीधे आतंकी हमला करने की बजाए सोशल प्लेटफॉर्म पर नैरेटिव सेट करता और भड़काता है. कुछ का काम केवल ओवरग्राउंड वर्करों को जोड़ना है. अंसार गजवात उल हिंद भी हुआ करता था. ये अलकायदा से जुड़ा था. अब ये कमजोर हो चुका लेकिन बीच-बीच में इसमें भी सुगबुगाहट होती है.
इन्होंने शैडो वॉर चलाया हुआ है, जिसमें एक नैरेटिव पर काफी चर्चा होती रही- दे वर्सेज अस. चरमपंथियों के उकसावे में आ चुके लोग खुद को ‘अस’ और बाकी देश समेत सेना को ‘दे; की श्रेणी में रखते जो कथित तौर पर उनके साथ नाइंसाफी कर रहे हैं.
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