देश में फिलहाल साढ़े पांच सौ से ज्यादा कैदी फांसी की सजा के इंतजार में जेलों में हैं. इनमें से बहुतों को सजा मिले कई साल या दशक हो चुके. लगभग हर साल सौ से ज्यादा दोषियों को फांसी सुनाई जाती है. लेकिन किसी न किसी वजह से सजा टलती रहती है. एक तरफ तो पुरानी सजाएं पेंडिंग हैं, वहीं दूसरी तरफ गुजरात में बच्ची के रेप और हत्या के दोषी को डबल कैपिटल पनिशमेंट सुनाई गई. जानें, क्या है ये और क्यों इस तरह की सजा सुनाई जाती है.
गुजरात के आनंद जिले की एक अदालत ने साल 2019 के मामले में एक शख्स को दो बार मौत की सजा सुनाई. मामला सात साल की बच्ची के रेप और हत्या का था. खंभात सेशन कोर्ट ने दोषी को धारा 302 और पॉक्सो के धारा 6 के तहत सजा सुनाई. बच्ची के साथ क्रूरता को रेयरेस्ट करार देते हुए कोर्ट ने पीड़ित परिवार को 13 लाख मुआवजा देने को भी कहा.
क्या है दोहरी मौत की सजा
ये बेहद क्रूर मामलों में दी जाती है. जैसे बर्बर हत्या या रेप, या बच्चों के साथ रेप. दोहरी मौत की सजा यह पक्का करती है कि अगर दोषी हाईकोर्ट में एक अपराध में बरी हो जाए तो भी दूसरे मामले में उसे मौत की सजा मिल सके.
इस बारे में कड़कड़डूमा कोर्ट के वकील मनीष भदौरिया बताते हैं कि कई सेक्शन हैं, जिनमें फांसी का ही प्रावधान है. बच्चों से यौन दुर्व्यवहार इसी कैटेगरी में आता है. जब किसी आरोपी पर मुकदमा चलता है तो कोर्ट अलग-अलग अपराधों पर अलग जजमेंट देती है. जैसे दोहरे मर्डर में दो बार मौत की सजा. कई बार ये सजाएं एक साथ चलती हैं, तो कई बार टुकड़ों में भी दी जाती हैं. संबंधित मामले में दोषी ने बच्ची का रेप और हत्या की और दोनों ही मामलों में उसे सजा-ए-मौत दी गई.
अब यहां सवाल है कि दो फांसी की सजा भला कैसे मिल सकती है? जाहिर तौर पर ये संभव नहीं है, लेकिन केस की गंभीरता और संवेदनशीलता को बताने के लिए इस तरह का जजमेंट दिया जाता है. यानी ये प्रतीकात्मक है.
एक और बात अक्सर उठती रही कि फांसी पाकर भी लोग सालों जेल में रहते हैं, या कई बार सजा घटकर आजीवन कारावास भी कैसे हो जाती है? तो इसके पीछे वजह है, हमारी अदालतों का इनवर्टेड पिरामिड स्टाइल. ट्रायल कोर्ट फैसला देने के बाद उसे हाई कोर्ट के पास भेजता है, जहां महीनेभर के अंदर मामलों को नए सिरे से देखा जाता है.
आमतौर पर हाई कोर्ट सेशन कोर्ट की सजा को मंजूरी दे देता है, और सजा मिल सकती है. लेकिन अक्सर तभी दोषी अपील लेकर आ जाता है, और मामला सरककर सुप्रीम कोर्ट तक पहुंच जाता है. कई बार सुनवाई चलते-चलते इतनी लंबी खिंच जाती है कि अदालत पिघल जाती है.
यहां नेचुरल जस्टिस के नियम का हवाला दिया जाता है कि दोषी ने सालों जेल में रहते हुए हर दिन फांसी की सजा का डर झेला, जो कि अपने-आप में मौत की सजा से कम नहीं. लिहाजा, ऐसे कैदियों को कोर्ट नरमी दिखाते हुए आजीवन कारावास सुना देते हैं. दिल्ली में नेशनल लॉ यूनिवर्सिटी की रिपोर्ट ‘डेथ पेनल्टी इन इंडिया…’ कहती है कि फांसी का फैसला लंबी कानूनी लड़ाई बन जाता है जो आमतौर पर 20 से 22 साल तक खिंचे.
कई बार सारी अदालतें एक लय में आ जाएं तो भी राष्ट्रपति के पास दया याचिका का ऑप्शन रहता है. याचिका मानी जाए तो सजा घटने से लेकर कम होने का भी विकल्प रहता है. यही कारण है कि बीते ढाई दशकों में 90 फीसदी से ज्यादा ऐसे मामलों में सजा कम हो गई.
हमारे अलावा भी दुनिया में कई देश हैं, जहां मल्टीपल डेथ वर्डिक्ट्स दिए जाते रहे, जैसे आतंकवाद, रेप और मर्डर जैसे मामलों में. लेकिन फर्क ये है कि हमारे यहां मौत की सजा के बाद भी कैदी औसतन 20 साल जेल में काटता है, वहीं बाकी जगहों पर प्रोसेस तेज और ज्यादा सख्त है. जैसे ईरान या सऊदी अरब की बात करें तो या डेथ सेंटेंस पर सिर्फ कुछ हफ्तों में आर-पार का फैसला हो जाता है.
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