रूस-यूक्रेन, इजरायल-हमास, टेरर हर मामले में फेल यूएन… क्यों भारत को सीरियसली नहीं लेना चाहिए? – Russia Ukraine Israel Hamas UN fails in every terror issue Why should India not take it seriously ntc

संयुक्त राष्ट्र परिषद (UN) फिर चर्चा में है. पहलगाम आतंकी हमले के बाद जब यूएन की आधिकारिक प्रतिक्रिया आई तो हल्के शब्दों में निंदा प्रस्ताव ने हर किसी को हैरान कर दिया. चूंकि, पाकिस्तान इस समय खुद को भारत की जांच से बचाने के लिए साजिशें रच रहा है. इसमें वो चीन का भी सहारा लेने के लिए पुरजोर कोशिश कर रहा है. हालांकि, भारत हर मोर्चे पर पाकिस्तान की घेरेबंदी में लगा है. मंगलवार को ही भारत ने एक बार फिर संयुक्त राष्ट्र में पाकिस्तान की कलई खोली और आतंकवाद को सपोर्ट करने की नीतियों पर एक्सपोज कर दिया.

दरअसल, संयुक्त राष्ट्र (UN) को वैश्विक शांति और सुरक्षा का प्रहरी माना जाता है, लेकिन हाल के वर्षों में इसकी भूमिका पर सवाल उठ रहे हैं. सवाल यह भी उठ रहा है कि क्या UNSC एक ऐसा मंच बन गया है जहां ताकतवर देश अपने हित साधते हैं और आम देशों की आवाज दबा दी जाती है. जब न्याय और निष्पक्षता की जगह राजनीति ले ले तो उस संस्था को गंभीरता से लेना मुश्किल हो जाता है.

कमजोर हो गई यूएन की विश्वसनीयता

चूंकि, दुनिया में शांति बनाए रखने के लिए संयुक्त राष्ट्र (यूएन) बनाया था, लेकिन बार-बार विफलता और प्रभावहीनता के कारण यूएन की विश्वसनीयता कमजोर होते देखी गई है. हाल के वर्षों में ये संस्था एक निष्क्रिय और पक्षपाती मंच बनती जा रही है. रूस-यूक्रेन युद्ध हो या इजरायल-हमास संघर्ष, आतंकवाद के मुद्दे हों या ग्लोबल साउथ की चिंताएं… यूएन हर बार महज बयानबाजी करता नजर आया. बड़ा सवाल यह है कि क्या भारत जैसे उभरते वैश्विक नेतृत्वकर्ता को अब यूएन को गंभीरता से लेना चाहिए? या फिर अपनी स्वतंत्र रणनीति पर ध्यान देना चाहिए?

रूस-यूक्रेन युद्ध में वीटो का खुला दुरुपयोग

साल 2022 में रूस ने यूक्रेन पर हमला किया. लेकिन यूएन सुरक्षा परिषद (यूएनएससी) कोई ठोस कार्रवाई नहीं कर सका. इस युद्ध ने UNSC की कमजोरी को उजागर किया. चूंकि, रूस खुद एक स्थायी सदस्य है और वीटो पावर का इस्तेमाल कर किसी भी प्रस्ताव को ब्लॉक कर देता है. यूएन महासभा ने रूस की निंदा जरूर की, लेकिन इसके कोई व्यावहारिक परिणाम नहीं निकले. ऐसे में युद्ध रोकने या निष्पक्ष समाधान की दिशा में यूएन पूरी तरह असहाय नजर आया. युद्ध अब तीसरे साल में है और लाखों लोग विस्थापित हो चुके हैं. यूएन के मानवाधिकार प्रमुख ने इसे भयानक मानवीय कीमत वाला संकट बताया, लेकिन यूएन की निष्क्रियता ने इसकी भूमिका को कमजोर किया. सवाल यही है कि क्या यह संस्था अब सिर्फ शक्तिशाली देशों के हितों की रखवाली करने वाला मंच बन चुकी है?

इजरायल-हमास संघर्ष में दोहरे मापदंड उजागर

इजरायल-हमास युद्ध में फिर यूएन की भूमिका संदेह के घेरे में देखी गई. 7 अक्टूबर, 2023 को हमास के आतंकी हमले के बाद इजरायल की जवाबी कार्रवाई में हजारों लोग मारे गए. यूएन ने युद्धविराम की अपील की, लेकिन ना तो इजरायल ने इसकी परवाह की और ना ही हमास ने. पश्चिम एशिया में क्षेत्रीय तनाव बढ़ने के बावजूद यूएन की भूमिका अपील तक सीमित रही. यानी जब हजारों निर्दोष मारे जा रहे थे तो यूएन सिर्फ ‘चिंता’ जताकर अपने कर्तव्य की इतिश्री कर रहा था. भारत जैसे देशों के लिए ये संदेश साफ है- यूएन में न्याय या समान नहीं, बल्कि राजनीतिक है.

आतंकवाद पर भी दोहरा रवैया

आतंकवाद के खिलाफ भी यूएन की नीतियां प्रभावी नहीं रही हैं. भारत लंबे समय से पाकिस्तान समर्थित आतंकवाद का शिकार रहा है, लेकिन यूएन अक्सर इस पर चुप्पी साध लेता है या फिर नाममात्र की निंदा करता है. इस्लामिक स्टेट (आईएस) जैसे संगठनों के खिलाफ रूस और पश्चिमी देशों ने अलग-अलग रणनीति अपनाई, लेकिन यूएन कोई एकजुट कार्रवाई नहीं कर सका. भारत ने बार-बार यूएन से आतंकवाद की व्यापक परिभाषा और कार्रवाई की मांग की, लेकिन स्थायी सदस्यों के परस्पर विरोधी हितों ने इसे रोके रखा. जैश-ए-मोहम्मद के सरगना मसूद अजहर को वैश्विक आतंकी घोषित करने में भी यूएन को सालों लग गए. वो भी तब, जब चीन जैसे देश लगातार वीटो लगा रहे थे. ऐसे में भारत ऐसी संस्था पर क्यों भरोसा करे?

भारत की स्थायी सदस्यता का मुद्दा

यूएन की नाकामी का सबसे बड़ा कारण इसका स्ट्रक्चर है. सुरक्षा परिषद के पांच स्थायी सदस्यों (अमेरिका, रूस, चीन, ब्रिटेन, फ्रांस) के पास वीटो पावर है, जो किसी भी प्रस्ताव को रद्द कर सकता है. यह संरचना द्वितीय विश्व युद्ध के बाद की दुनिया के लिए बनाई गई थी, जो अब अप्रासंगिक हो चुकी है. भारत जैसे उभरते देशों को स्थायी सदस्यता ना देना भी यूएन की विश्वसनीयता को कम करता है. भारत, दुनिया का सबसे बड़ा लोकतांत्रिक देश है. जी-20 की अध्यक्षता कर चुका है. वैश्विक मंचों पर निर्णायक भूमिका निभा रहा है. फिर भी यूएन सुरक्षा परिषद में भारत की स्थायी सदस्यता को लेकर टालमटोल जारी है. जानकार कहते हैं कि क्या यह यूएन की निष्पक्षता और समावेशिता पर सवाल नहीं उठाता है?

भारत को चाहिए ‘रिफॉर्म या रिजाइन’ की नीति

वक्त आ गया है कि भारत यूएन में सुधार की मांग और तेज करे. अगर यूएन खुद को समय के अनुसार नहीं बदलता तो भारत को क्यों ‘सीरियसली’ लेना चाहिए. क्वाड, ब्रिक्स, जी-20 जैसे विकल्प अब अधिक प्रभावी हो सकते हैं, जहां भारत की आवाज सुनी जाती है और असर भी होता है. साल 2023 में हिरोशिमा के जी-7 समिट में पीएम मोदी ने सवाल उठाया था कि संयुक्त राष्ट्र और सुरक्षा परिषद आज की दुनिया की वास्तविकताओं को प्रतिबिंबित नहीं करेंगे तो वे केवल ‘बातचीत का एक मंच भर’ बनकर रह जाएंगे.

पहलगाम पर क्या है UNSC का रुख?

दरअसल, जम्मू-कश्मीर के पहलगाम में 22 अप्रैल के आतंकियों ने हमला कर दिया था, इसमें 26 टूरिस्ट मारे गए थे. करीब 16 पर्यटक घायल हो गए थे. इस आतंकी घटना ने दुनियाभर में खलबली मचा दी है. इस हमले के बाद भारत और पाकिस्तान के रिश्ते रसातल में पहुंच गए हैं. ऐसे में संयुक्त राष्ट्र महासचिव एंटोनियो गुटेरेस ने पाकिस्तान के प्रधानमंत्री शहबाज शरीफ और भारत के विदेश मंत्री जयशंकर से फोन पर बात की है. संयुक्त राष्ट्र के महासचिव गुटेरेस ने पहलगाम हमले की कड़े शब्दों में निंदा की और मामले में न्याय और जवाबदेही के महत्व पर जोर दिया. उन्होंने शहबाज शरीफ और जयशंकर को फोन कर चर्चा करते हुए कानूनी तरीकों से इन हमलों के लिए जवाबदेही सुनिश्चित करने पर जोर दिया.

यूएन में सुधार पर जोर दे रहा भारत…

पीएम मोदी ने आश्चर्य जताया था कि जब इन चुनौतियों से निपटने के लिए संयुक्त राष्ट्र का गठन किया गया था तो विभिन्न मंचों को शांति और स्थिरता से जुड़े मुद्दों पर विचार-विमर्श क्यों करना पड़ा. उन्होंने कहा था कि यह विश्लेषण का विषय है. हमें विभिन्न मंचों पर शांति और स्थिरता की बात क्यों करनी पड़ रही है? शांति स्थापित करने के विचार से शुरू हुआ संयुक्त राष्ट्र आज संघर्षों को रोकने में सफल क्यों नहीं हो पा रहा है?

आतंकवाद की अब तक सही परिभाषा क्यों नहीं? 

पीएम मोदी ने आतंकवाद की परिभाषा को लेकर भी सवाल उठाए थे. उन्होंने कहा था कि ‘क्यों संयुक्त राष्ट्र में आतंकवाद की परिभाषा तक को स्वीकार नहीं किया गया? अगर कोई आत्ममंथन करे तो एक बात स्पष्ट हो जाती है कि पिछली सदी में बनाई गई संस्थाएं आज की इक्कीसवीं सदी की व्यवस्थाओं के अनुसार नहीं हैं.

प्रधानमंत्री ने कहा कि संयुक्त राष्ट्र अब दुनिया की वर्तमान वास्तविकताओं को प्रतिबिंबित नहीं करता है. वो हकीकत से दूर है. इसलिए यह जरूरी है कि संयुक्त राष्ट्र जैसे बड़े संस्थानों में सुधारों को लागू किया जाना चाहिए. उन्होंने कहा, उन्हें ग्लोबल साउथ (अल्प विकसित देशों) की आवाज भी बनना होगा. अन्यथा हम केवल संघर्षों को खत्म करने के बारे में बात करते रहेंगे.

यूएन में जाकर आइना दिखा चुका भारत

पिछले साल प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने न्यूयॉर्क में संयुक्त राष्ट्र महासभा में ‘संयुक्त राष्ट्र के भविष्य’ के शिखर सम्मेलन को संबोधित किया था. इस दौरान पीएम मोदी ने वैश्विक संस्थाओं में सुधार का आह्वान किया और सुधारों को ‘प्रासंगिकता की कुंजी’ बताया. पीएम मोदी ने कहा,वैश्विक शांति और विकास सुनिश्चित करने के लिए वैश्विक संस्थानों में सुधार जरूरत है. सुधार प्रासंगिकता की कुंजी है. नई दिल्ली शिखर सम्मेलन में G20 में अफ्रीकी संघ की स्थायी सदस्यता इस दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम था.

पीएम मोदी का कहना था, एक तरफ, आतंकवाद वैश्विक शांति और सुरक्षा के लिए एक गंभीर खतरा बना हुआ है तो दूसरी तरफ साइबर, समुद्री और अंतरिक्ष संघर्ष के नए थिएटर के रूप में उभर रहे हैं. इन सभी मुद्दों पर मैं इस बात पर जोर दूंगा कि वैश्विक कार्रवाई वैश्विक महत्वाकांक्षा से मेल खानी चाहिए.

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