हारेंगे-जीतेंगे या बदलेंगे समीकरण… बिहार चुनाव में क्या असर डालेंगे प्रशांत किशोर और उनकी जन सुराज पार्टी? – Prashant Kishor can not be king in Bihar Will he settle for kingmaker bihar election ntcpvp

बिहार की सियासत हमेशा से देश की राजनीति के केंद्र में रही है. यहां की राजनीति में जातीय समीकरण, क्षेत्रीय प्रभाव और विकास के मुद्दे हमेशा चर्चा में रहते हैं. इस बार, बिहार के आगामी विधानसभा चुनाव 2025 में एक नया नाम सुर्खियों में है, प्रशांत किशोर और उनकी जन सुराज पार्टी (जेएसपी). पिछले साल प्रशांत किशोर ने दावा किया था कि उनकी पार्टी न केवल बिहार की सभी 243 सीटों पर चुनाव लड़ेगी, बल्कि दिल्ली में आम आदमी पार्टी (आप) की तरह बिहार में भी सत्ता हासिल करेगी.

विकास के एजेंडे को लेकर चल रही यह पार्टी प्रशांत किशोर की अब तक की सबसे बड़ी सियासी जंग है. लेकिन इस राह में कई चुनौतियां भी हैं. आलोचकों और विरोधियों का आरोप है कि वह भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) की ‘बी-टीम’ हैं और उनका मकसद विपक्ष के वोटों को बांटना है. इसके अलावा, बिहार की जाति-आधारित राजनीति और संगठनात्मक कमजोरियां भी उनके लिए मुश्किलें खड़ी कर रही हैं. इस पूरे परिदृश्य को विस्तार से समझने की जरूरत हैं. 

जाति का जटिल समीकरण
प्रशांत किशोर की ब्राह्मण पहचान बिहार की सियासत में उनके लिए एक दोधारी तलवार साबित हो सकती है. बिहार में आखिरी बार 1989 जगन्नाथ मिश्रा सीएम बने थे, जो कि ब्राह्मण थे. मंडल आयोग लागू होने के बाद से बिहार में केवल अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) के नेता ही मुख्यमंत्री की कुर्सी तक पहुंचे हैं. हालांकि, प्रशांत किशोर ने अभी तक खुद को मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित नहीं किया है, लेकिन उनकी पार्टी किसी खास जाति या समुदाय पर केंद्रित नहीं है. यह एक जोखिम भरा कदम है, क्योंकि बिहार में जाति का प्रभाव गहरा है.

2018 में अजीम प्रेमजी विश्वविद्यालय और लोकनीति द्वारा किए गए एक अध्ययन के मुताबिक, बिहार के 57 प्रतिशत लोग अपने ही जाति के नेताओं को प्राथमिकता देते हैं. वर्तमान में कुर्मी/कोइरी, अति पिछड़ा वर्ग (ईबीसी), अति दलित (महादलित), और ऊंची जातियां राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) का समर्थन करती हैं. वहीं, यादव और मुस्लिम समुदाय, जो बिहार की आबादी का 32 प्रतिशत हैं, महागठबंधन के प्रबल समर्थक हैं.

प्रशांत किशोर इस जाति-आधारित चुनाव को वर्ग-आधारित बनाने की कोशिश कर रहे हैं. वह पिछले 35 सालों में नीतीश कुमार और लालू प्रसाद यादव के शासन में विकास की कमी को प्रमुखता से उठा रहे हैं. उनकी रणनीति है कि बिहार के मतदाताओं को जाति की बजाय विकास और रोजगार जैसे मुद्दों पर एकजुट किया जाए. लेकिन क्या यह रणनीति बिहार जैसे राज्य में कामयाब हो पाएगी, जहां जातीय समीकरण राजनीति की रीढ़ हैं?

पहला कदम और शुरुआती ठोकर
जन सुराज पार्टी ने पिछले साल चार विधानसभा सीटों पर हुए उपचुनाव में अपनी सियासी पारी शुरू की थी. इस डेब्यू में पार्टी ने कुल मिलाकर 10 प्रतिशत वोट शेयर हासिल किया, जो एक नई पार्टी के लिए ठीक-ठाक प्रदर्शन माना जा सकता है, लेकिन एनडीए ने सभी चार सीटें जीत लीं. इमामगंज और रामगढ़ में जेएसपी ने जीत के अंतर से ज्यादा वोट हासिल किए, जिससे यह साफ हुआ कि उनकी मौजूदगी ने चुनावी समीकरण को प्रभावित किया.

2020 के विधानसभा चुनाव में इन चार सीटों में से तीन पर महागठबंधन ने जीत हासिल की थी. उस समय महागठबंधन का वोट शेयर 41 प्रतिशत था, जो उपचुनाव में 10 प्रतिशत घट गया. अन्य छोटी पार्टियों का वोट शेयर भी नौ प्रतिशत कम हुआ, जबकि एनडीए को नौ प्रतिशत और जेएसपी को 10 प्रतिशत वोट शेयर का फायदा हुआ. बेलागंज सीट पर जेएसपी ने एक मुस्लिम उम्मीदवार उतारा, जिसने 11 प्रतिशत वोट हासिल किए. इस सीट पर महागठबंधन का वोट शेयर 16 प्रतिशत घटा, जिससे साफ है कि जेएसपी ने विपक्ष के वोट काटे.

इमामगंज में जेएसपी ने एक पासवान उम्मीदवार को मैदान में उतारा, जबकि महागठबंधन और एनडीए ने महादलित (मांझी समुदाय) के उम्मीदवारों को चुना. जेएसपी के उम्मीदवार ने 23 प्रतिशत वोट शेयर हासिल किया, जो महादलित और पासवान समुदायों के बीच की दरार को भुनाने की रणनीति का हिस्सा था.
हालांकि, उपचुनाव में उतरकर प्रशांत किशोर ने एक रणनीतिक भूल की. उनकी पार्टी को लेकर जो रहस्य और उत्सुकता थी, वह खत्म हो गई. अब जेएसपी को ‘वोट-कटवा’ पार्टी के रूप में देखा जा रहा है, जो मुख्य पार्टियों के लिए खतरा बन सकती है, लेकिन खुद सत्ता तक पहुंचने की संभावना कम है.

बिहार में प्रभाव का दायरा
बिहार की सियासत में तीन पार्टियां सबसे ज्यादा प्रभावशाली हैं- राष्ट्रीय जनता दल (आरजेडी), जनता दल (यूनाइटेड) [जेडी(यू)], और भारतीय जनता पार्टी (भाजपा). इनमें से जेडी(यू) सत्ता की चाबी है. जिस गठबंधन के साथ जेडी(यू) जाती है, वही सत्ता में आता है. वर्तमान में एनडीए में नीतीश कुमार की जेडी(यू), भाजपा, चिराग पासवान की लोक जनशक्ति पार्टी, जीतन राम मांझी की हिंदुस्तानी अवाम मोर्चा, और उपेंद्र कुशवाहा की राष्ट्रीय लोक मंच शामिल हैं. दूसरी तरफ, इंडिया गठबंधन में लालू प्रसाद यादव की आरजेडी, कांग्रेस, मुकेश साहनी की विकासशील इंसान पार्टी, और वामपंथी दल शामिल हैं. इसके अलावा, ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन (एआईएमआईएम), बहुजन समाज पार्टी (बीएसपी), और अब जन सुराज पार्टी जैसे छोटे दल भी हैं, जो किसी बड़े गठबंधन का हिस्सा नहीं हैं.

ये ‘अन्य’ दल 2005 में सबसे मजबूत थे, जब दो चुनावों, (मार्च में एक, जिसका परिणाम त्रिशंकु था, और अक्टूबर में दूसरा, जिसमें एनडीए विजयी रहा) में इन्होंने 18 से ज्यादा सीटें जीती थीं, लेकिन 2010 और 2020 के चुनावों में इनकी सीटें सात तक सिमट गईं. इनका वोट शेयर भी 2005 के 27 प्रतिशत से घटकर 2020 में 17 प्रतिशत रह गया.

ये छोटे दल आमतौर पर ‘वोट-कटवा’ के रूप में देखे जाते हैं, जो मुख्य पार्टियों की संभावनाओं को नुकसान पहुंचा सकते हैं. 2020 में एआईएमआईएम ने पांच मुस्लिम-प्रभावित सीटें जीतकर सबको चौंका दिया था, जिससे महागठबंधन/यूपीए को नुकसान हुआ. 2020 में एनडीए ने 125 और यूपीए ने 110 सीटें जीतीं, जबकि बहुमत का आंकड़ा 122 था. उस चुनाव में 120 सीटों पर दूसरे नंबर की पार्टी ने जीत के अंतर से ज्यादा वोट हासिल किए. 2015 में यह आंकड़ा 90 और 2010 में 121 सीटों का था.

क्या प्रशांत किशोर की जीत संभव है?
लालू यादव के उत्तराधिकारी तेजस्वी यादव युवाओं के बीच एक लोकप्रिय नेता बनकर उभरे हैं. बेरोजगारी और महंगाई जैसे मुद्दों को उठाकर उन्होंने 2020 में नीतीश कुमार को कड़ी टक्कर दी थी और आरजेडी सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी थी. दूसरी तरफ, प्रशांत किशोर तेजस्वी की शैक्षिक योग्यता और नीतीश कुमार की मानसिक स्थिति पर निशाना साध रहे हैं. हाल ही में उन्होंने बिहार लोक सेवा आयोग (बीपीएससी) की परीक्षाओं में अनियमितताओं के खिलाफ प्रदर्शन कर रहे छात्रों का समर्थन किया.

प्रशांत किशोर ने राहुल गांधी की भारत जोड़ो यात्रा और भारत जोड़ो न्याय यात्रा की तर्ज पर बिहार में पदयात्राएं की हैं. उनका मानना है कि नीतीश कुमार के रिटायर होने के बाद जेडी(यू) कमजोर पड़ सकती है, और वह इसका वोट बैंक, नेता और कार्यकर्ता अपनी ओर खींच सकते हैं. हाल के एक सर्वे में प्रशांत किशोर मुख्यमंत्री की पसंद के मामले में तीसरे नंबर पर रहे, जिन्हें 15 प्रतिशत लोगों ने चुना. नीतीश कुमार को 18 प्रतिशत और तेजस्वी यादव को 41 प्रतिशत लोगों ने पसंद किया, लेकिन जेएसपी के पास मजबूत संगठनात्मक ढांचा और स्थापित मतदाता वफादारी की कमी है, जो उनकी राह में सबसे बड़ी बाधा है.

2025 में क्या होगा नतीजा?
क्या प्रशांत किशोर 2025 में बिहार का चुनाव जीत सकते हैं? इसका जवाब है- नहीं, बिल्कुल नहीं. लेकिन क्या वह त्रिशंकु विधानसभा की स्थिति पैदा कर सकते हैं और किंगमेकर की भूमिका निभा सकते हैं? शायद. एक रणनीतिकार के रूप में प्रशांत किशोर का अनुभव उन्हें सियासी दांवपेच में माहिर बनाता है. उनकी रणनीति कितनी कामयाब होगी, यह वक्त ही बताएगा. बिहार की जनता के सामने अब सवाल यह है कि क्या वे जाति की दीवारों को तोड़कर विकास के मुद्दे पर वोट देगी, या फिर परंपरागत समीकरण ही हावी रहेंगे.

लेखक का नजरिया: प्रशांत किशोर की जन सुराज पार्टी बिहार की सियासत में एक नया रंग ला रही है, लेकिन उनकी राह आसान नहीं है. बिहार जैसे जटिल सियासी मैदान में उनकी सफलता इस बात पर निर्भर करेगी कि वे कितनी जल्दी संगठन खड़ा कर पाते हैं और मतदाताओं को अपने पक्ष में लामबंद कर पाते हैं.
(लेख में प्रस्तुत आंकड़े और तथ्य विभिन्न अध्ययनों और चुनावी विश्लेषणों पर आधारित हैं.)

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