भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार ने विपक्ष और राजनीतिक पंडितों को चौंकाते हुए ऐलान किया कि वह जाति जनगणना कराएगी. हालांकि एक ओर कांग्रेस इस कदम का क्रेडिट ले रही है, और कह रही है कि बीजेपी ने राहुल गांधी के लगातार दबाव के आगे घुटने टेक दिए. दूसरी ओर भाजपा समर्थक इस कदम को मास्टरस्ट्रोक बता रहे हैं, उनका दावा है कि इसने बिहार विधानसभा चुनावों से पहले विपक्ष के मुख्य चुनावी मुद्दे की धार को खत्म कर दिया है.
केंद्र की मोदी सरकार का ये फैसला निश्चित रूप से आश्चर्यजनक है, क्योंकि जाति जनगणना को लेकर बीजेपी लंबे समय से अनिर्णीत रही है. बीजेपी ने हिंदुत्व और राष्ट्रवाद की तर्ज पर हिंदू-बहुल वोट बैंक को मजबूत किया है, और मतदाताओं को जाति से ऊपर उठने के लिए प्रेरित किया है. 2014 और 2019 के आम चुनावों और कई राज्य चुनावों में भारी जीत के साथ यह काफी हद तक सफल रहा है. ऐसे में सवाल उठता है कि आखिर क्या कारण है, जिसने भाजपा जैसी पार्टी को यू-टर्न लेने पर मजबूर कर दिया. जिसने कभी जाति जनगणना की मांग को विभाजनकारी कहा था.
1. कांग्रेस का दबाव और सामाजिक न्याय की राजनीति
कांग्रेस पार्टी ने सत्ता में आने पर पूरे देश में जाति जनगणना की गारंटी दी थी. तीन में से दो राज्यों में जहां वह सत्ता में है, कांग्रेस ने इस वादे को पूरा किया है, जो ये दर्शाता है कि यह महज़ दिखावा नहीं है. कांग्रेस ने अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों और अन्य पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षण पर सुप्रीम कोर्ट द्वारा तय 50 प्रतिशत की सीमा को बढ़ाने के लिए एक संवैधानिक संशोधन पारित करने का भी वादा किया है.
चूंकि ओबीसी आरक्षण वर्तमान में 27 प्रतिशत है, और एससी-एसटी को उनकी आबादी के हिसाब से लगभग 100 प्रतिशत आरक्षण प्राप्त है, ऐसे में आरक्षण की लिमिट बढ़ाने से ओबीसी को लाभ होने की संभावना है. कांग्रेस को उम्मीद है कि गुजरात में आयोजित पूर्ण अधिवेशन में सामाजिक न्याय को अपना मुख्य मुद्दा बनाकर वह ओबीसी वोट बैंक पर भाजपा की पकड़ में सेंध लगा पाएगी. कांग्रेस को एहसास हो गया है कि ओबीसी के बिना, वह किसी भी आगामी चुनाव में बीजेपी के विजयी रथ को नहीं रोक सकती.
2) 2024 के लोकसभा चुनाव में झटका
बीजेपी जाति जनगणना कराने से कतराती रही है, क्योंकि वह पिछले कुछ वर्षों में ओबीसी का समर्थन मजबूत करने में सफल रही, जो 2009 में 22 प्रतिशत से दोगुना होकर 2019 में 44 प्रतिशत हो गया. प्रधानमंत्री और भाजपा के कई मुख्यमंत्री ओबीसी से आते हैं. पार्टी ने ओबीसी नेताओं को चुनाव टिकट और केंद्रीय और राज्य कैबिनेट भूमिकाओं के माध्यम से बहुत अधिक प्रतिनिधित्व दिया है. इस तरह उसने कांग्रेस और क्षेत्रीय दलों से ओबीसी को अपनी ओर आकर्षित कर लिया.
हालांकि, 2024 के आम चुनावों में भाजपा ने उम्मीद के मुताबिक प्रदर्शन नहीं किया, वह बहुमत हासिल नहीं कर सकी. इतना ही नहीं, NDA 400 से ज्यादा सीट नहीं ला सका, जैसा कि चुनाव से पहले ‘400 पार’ का नारा दिया गया था. सीएसडीएस के आंकड़ों के अनुसार एनडीए को ऊपरी ओबीसी में 4% और निचली ओबीसी में 7% वोटों का नुकसान हुआ, जबकि विपक्षी INDIA ब्लॉक को क्रमश: 11% और 7% का फायदा हुआ. भले ही आंकड़ों में यह गिरावट मामूली प्रतीत हो सकती है, लेकिन हिंदी पट्टी में इसका प्रभाव बेहद गहरा है. बिहार में जहां एनडीए ने 40 में से 30 सीटें जीतीं, वहीं 2019 की तुलना में उसे 9 सीटों का नुकसान हुआ. खासतौर पर कुर्मी-कोइरी समुदाय के 12% और अन्य पिछड़ी जातियों के 24% वोटों में गिरावट दर्ज की गई. इसके विपरीत INDIA ब्लॉक को इन्हीं वर्गों में क्रमशः 9% और 1% से अधिक का लाभ मिला. उत्तर प्रदेश की स्थिति और भी चिंताजनक रही. एनडीए यहां 80 में से केवल 36 सीटें ही जीत सका, जबकि 2019 में उसे 64 सीटें मिली थीं, यानी 28 सीटों का नुकसान. यह गिरावट अखिलेश यादव की PDA (पिछड़े, दलित, अल्पसंख्यक) रणनीति के कारण हुई, जिसने हिंदुत्व के प्रभाव को मात दे दी. यूपी में कुर्मी-कोइरी वोटों में 19% और अन्य ओबीसी वोटों में 13% की गिरावट एनडीए के लिए खतरे की घंटी साबित हुई.
3) बिहार और यूपी चुनाव की आहट
भारतीय राजनीति में जाति की भूमिका बहुत अहम है, 2018 के अजीज प्रेमजी संस्थान के अध्ययन के अनुसार 55 प्रतिशत मतदाता अपनी जाति के नेताओं को पसंद करते हैं. बिहार में एक और चुनावी जंग की तैयारी चल रही है, लेकिन नीतीश कुमार की गिरती सेहत और 20 साल की सत्ता विरोधी लहर के बोझ को देखते हुए मुकाबला कड़ा होने की उम्मीद है. भाजपा के नेतृत्व वाले एनडीए गठबंधन को, जिसे कभी सामाजिक गठबंधन बनाने की अपनी क्षमता के लिए अजेय माना जाता था, विपक्ष के जातिगत गणित पर नए सिरे से ध्यान केंद्रित करने और मुसलमानों और यादवों से परे अपने वोट बैंक का विस्तार करने के प्रयासों से बढ़ती चुनौती का सामना करना पड़ रहा है.
यह कोई अचानक हुआ घटनाक्रम नहीं है. 2020 के बिहार विधानसभा चुनावों में जब नीतीश कुमार एनडीए खेमे में मजबूती से थे, तब गठबंधन पहले ही 10 प्रतिशत ओबीसी/ईबीसी समर्थन खो चुका था, जबकि महागठबंधन को 7 प्रतिशत समर्थन मिला था. वह चुनाव लगभग बराबरी पर समाप्त हुआ था, जिसमें दोनों गठबंधनों को लगभग 37 प्रतिशत वोट मिले थे, जिसमें अंतर 12,000 वोटों से भी कम था.
बिहार में नीतीश कुमार ने पहले ही जातिगत सर्वेक्षण करवा लिया है, जिससे महागठबंधन और एनडीए के बीच क्रेडिट वॉर शुरू हो गया है, जो इसकी राजनीतिक ताकत का स्पष्ट संकेत है. महागठबंधन एक कदम और आगे बढ़ गया है, उसने इससे भी आगे जाकर आरक्षण की सुप्रीम कोर्ट द्वारा तय 50% की सीमा को पार करने की घोषणा कर दी. नीतीश कुमार की सरकार ने बिहार में आरक्षण की सीमा को बढ़ाकर 65 प्रतिशत कर दिया था, जिसे अंततः अदालतों ने असंवैधानिक करार दिया. फिर भी राजनीतिक संदेश स्पष्ट था- जेडीयू के नेता बिहार के जटिल सामाजिक परिदृश्य में जातिगत अंकगणित की शक्ति को समझते हैं. वहीं दूसरी ओर, एनडीए इस मुद्दे पर अब तक टालमटोल करता रहा.
यूपी में जहां 2027 में चुनाव होने हैं, भाजपा को अखिलेश यादव के पीडीए फॉर्मूले को तोड़ना होगा. हालांकि उपचुनावों में भाजपा विजयी हुई, लेकिन वह अच्छी तरह जानती है कि सत्ता पक्ष को अक्सर मतदाता की उदासीनता का फायदा मिलता है. समाजवादी पार्टी नॉन-जाटव वोटों को हथियाने में भाजपा से आगे निकल गई. जो कि 56 प्रतिशत बनाम 29 प्रतिशत है. अगर समाजवादी पार्टी बहुजन समाज पार्टी के जाटव वोट बैंक (जिसका 13% वोट शेयर है) में सेंध लगाने में सफल होती है, तो यह भाजपा के लिए बड़ी मुश्किल बन सकता है.
भाजपा के लिए जोखिम
भाजपा का ये कदम विपक्ष के प्रमुख चुनावी मुद्दे को निष्क्रिय करने की रणनीति के रूप में देखा जा रहा है. आरक्षण की राजनीति और जातिगत जनगणना की मांग सामाजिक न्याय और पहचान की गहराई से जुड़ी हुई हैं, जिनसे बड़ी आबादी भावनात्मक रूप से जुड़ी होती है. भाजपा को शायद यह एहसास हो गया है कि जाति के सवाल को अनदेखा करना आपके लिए जोखिम भरा हो सकता है. अगर बीजेपी ने इसे हल्के में लिया तो वह चुनावी गणित में भी पिछड़ सकती है.
हालांकि नई रणनीति हिंदू वोटों को धार्मिक आधार पर एकजुट करने की बीजेपी की कोशिश को विफल करने वाली है, इससे जाति के आधार पर वोटों का विभाजन हो सकता है, हालांकि, यह नई रणनीति भाजपा के उस लंबे प्रयास को कमजोर करती है, जिसके जरिए वह धार्मिक एकता के नाम पर हिंदू वोटों का ध्रुवीकरण कर रही थी। जातिगत जनगणना के बाद यदि वोटर फिर से स्थानीय उम्मीदवार की जाति को ध्यान में रखकर वोट डालते हैं, तो हिंदुत्व और राष्ट्रवाद की पिच कमजोर हो सकती है. यह स्थिति भाजपा के लिए चिंता का कारण बन सकती है.
इसके साथ ही यह फैसला बीजेपी के शहरी और मध्यम वर्गीय वोटरों को भी निराश कर सकता है, जो इसे मंडल युग की राजनीति में वापसी के रूप में देख सकते हैं. आज जब समाज में जातिविहीन व्यवस्था की मांग जोर पकड़ रही है, तब भाजपा का यह कदम उसके ही विकास और समरसता के एजेंडे से एक कदम पीछे हटने जैसा लग सकता है. कई लोग इसे कृषि विधेयकों की तरह भाजपा द्वारा एक कदम पीछे हटने के रूप में देखते हैं. विपक्ष पिछले कुछ समय से भाजपा की पिच पर खेल रहा है. लेकिन जातिगत जनगणना का मुद्दा एक ऐसा मौका है, जो भाजपा को विपक्ष की पिच पर खींच सकता है. अब देखना यह है कि क्या विपक्ष इस मौके का फायदा उठाकर भाजपा को पूरी तरह घेरने में सफल होता है, या नहीं. इसका जवाब समय ही देगा.
(इस लेख में व्यक्त विचार लेखक के निजी विचार हैं)
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